"मैं नदी मलिन हूँ

तुम जानते हो
मैं स्वच्छ जल की नदी नहीं हूँ ,
तुम जानते हो
मैं नदी मलिन हूँ
फिर भी अपने अहंकार को लिए
मैं इतने गर्व से बहती हूँ
तुम चट्टान बनकर आते हो
मेरे मार्ग में,
और मैं काँप जाती हूँ
कैसे गुजरूँ?
तुम्हारे चरणों को छूकर
कैसे स्पर्श करूँ?
तुम्हारे निर्मल गात
तुम जानते
मैं नदी मलिन हूँ,
मैं इधर देखती हूं
मैं उधर देखती हूं
अपना दूसरा मार्ग खोजती हूं
इस बीच
एक जल का प्रवाह
तुम्हारी ओर
धकेलता है मुझे
और मैं गलती से छू जाती हूँ
तुम्हारे निर्मल गात,
मैं क्षोभग्रस्त होकर
झेंप जाती हूँ