ख़्वाब

चाँदनी रात में वो बैठा है झील के किनारे देख रहा है खुली आँखों से ख़्वाब... बह रही है ठंडी-ठंडी हवा पर शांत है झील और शांत है वो भी... खोया हुआ है महबूब की यादों में इसीलिए तो कोसों दूर है उसकी आँखों से नींद पर उसे सुकून है जुदाई में भी मीठा-मीठा दर्द है तभी एक ठंडा झोका हवा का आता है और वो ख़्वाबों की दुनियां से बाहर आता है अब वो सिकुड रहा है उसके दाँत किट-किट की आवाज़ कर रहे हैं क्योंकि ख़्वाब टूट चुका है |
- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा